छत्तीसगढ़ी कविता क्रांति के सुर ला प्रलय- राग मां बांधही? ये जम्मो हर काल के कोरा मां लुकाय हे
हमर छत्तीसगढ़ घात सुग्घर हे, अउ छत्तीसगढ़ी गजब के गुरतुर अऊ नुनछुर भाखा ए, ए मा किसान के पबरित पसीना हे, अऊ आंसू के अमरित हे ए हर मनखे के मन के भाव-भलाई हे। छत्तीसगढ़ी कविता के डोंहड़ी कलचुरि राजा के खार मं बाढ़िस, अऊ हय-हय बंस के बगैचा मं फूलिस फेर जनता के बियारा कोठार म आके पिंउरा गईस।
छत्तीसगढ़ी कविता कन्व मुनि के पोंसवा बेटी-धियरी सकुन्तला साहीं आय, जउन बिहाता होके सेंदुर-सोहाग बर तरसत हे, ओकर दुस्यंत मिलत नई ए, लुटइया ढीमरा के जाली म ओखर चिन्हारी के मुंदरी माथा पटकत हे।
छत्तीसगढ़ी कविता ह वो पंड़की साही हावय, जेकर डेना उडिय़ाय के पहिली लहू मं तर-बतर हे, चिरई-चुरगुन ल देख के वोकर मन अगास मं उडिय़ाय बर करथे, अपन खेत-खार मं दाना चरे बर जीउ हदरथे फेर परदेसी मन के मारे असक परे हे। ए लूट-खसोट कब सिराही? ए दिनमान हुरमत लूटे कलंक कब छेवर होही? जब्भे बादर ले बिजुरी कड़कही, अंगरा बरसही, गाज गिरही, तब्भे कुछु होही। वो बिहान कब आही? कब मुक्ति के किरन धरती मइया के आंसू पोंछहीं? कब छत्तीसगढ़ी कविता क्रांति के सुर ला प्रलय- राग मं बांधही? ये जम्मो हर काल के कोरा मं लुकाय हे।
छत्तीसगढ़ी कविता के परान गांव के आतमा मं बसे हे, अऊ वोकर गंवई संस्किरिति एक अइसन सकुंतला हे, जउन रिसि कइना हे, फेर साप मं परे हे, कोनो के सुआरी-के परेम पाके घलाय- वोला सब्बे निनासत हें। तभो ले वोकर रद्दा जिनगी हे, मउत नई ए जइसे जिनगानी हर मौत ल लरे बर, जीते बर जोमिया के हुरियावत हे।
परदेसी आईन त सूजी साहीं,
अब चकरा के साबर होगे हे।
हमरे पोसे कुकूर हमीला करे हांव।
हमन हा पर होगेन ऊंखर होगे गांव।।
आज ऊंखर होगे गा राजा कस रजवाड़ा।
हमर घर ओदर के होगे फुटहा बाड़ा।।
देसमुख के मन मं गांव-गंवई के पीरा हे, हमर छत्तीसगढ़ मं जउन दोहन- लूट खसोट चलत हे वोखर एक नमूना पंचायती राज हे-
गदहा हा घोड़ा के घोड़सार मं बंधावत हे।
पंचयती राज मं गा, गंज मजा आवत हे।।
डेटरा खवइया इहां, चला ला झड़कावत हे।
खटिया सुतइया हा, दिल्ली ला सपनावत हे।
एती नेता मन के भाखा हा तसमई होगे हे अउ ओती दुनिया मं जियई हा करलई होगे हे। भाजी महंगी हे, अऊ ईमान सस्ती हे। चिरई चुरगुन कहां ले बांचय, कस्साई के बस्ती हे? धरती के बेटवा पिंउरावत हे, अउ बइमान मन हरियावत हे।
नइये साख जोग मं, भभूत मं आंखी फोरे रे।
तोर पाप आज संगी मूड़ मं चढ़के बोले रे।।
रंग रंग के भेस मं परदेसी इहां बइला ल दुहत हे। जब लूटवइया के गर-कटवा के पाप छानी चढ़ के नाचही, त नरई ले मुरकेट के कस्साई मन के करेज्जा ल करो के, काट के, कुटा-कुटा कौंवा- गिद्ध ल खवाय ल परही।
कवि ला जब गांव के सुरता आथे, त अइसे लागथे, जइसे मन मं महानदी के लहरा लहरावत हे, मोंगरा के मम्हई मम्हावत हे, महामाई मया करत हे, दंतेस्वरी दया करत हे.. फेर का करिहा नर्मदा मइया के दया, पिछवा जाथे, दाई, दादा पाके बोईर असन झर जाथें।
दुनिया मं अमरित पीके, तिही हस अमर।
बाकी मन जियत हे, पी-पी के जहर।
छत्तीसगढ़ी कविता मं जउन कुरिया- कुंदरा संस्किरिति उप्पर संस्कार के बोझा बहुत हे। छत्तीसगढिय़ा सोझवा सुभाव के होथे, वोकर मयारूक मन मं पहुना मन बर घात आदर हावय। वो हर गाथय त खुल के गीद-गोविंद गाथय, अउ रोथय त फूट फूट के रोथय, बिलपथे, सुरर सुरर के रो- रो के बिहान कर देथे। बनगैहां सुभाव अभी छूटे नई ए, थोर-थार अभी चटके हे।
अभी त छत्तीसगढ़ मं जतका उपजत हे,तउन नेह मं झोरसा जात हे। वोखर जमीन- जायदाद कहां हे? जम्मो भुइयां मं आन-मन, आन- तान उत्ता-धुर्रा चरत जात हें। मरम के गोठ ए हर के हमर भमर म बूडे हन।
हमर छत्तीसगढ़- महतारी बपुरी ककनी- नांगमोरी के बलदा मं बेड़ी- सूली म टंगाय हे- नई पतियावा त भेलाई बैलाडि़ला, कोरबा के सरग नसैनी के सांचा-खांचा ल देखा- वोकरे हाड़ा-गोड़ा ठाढ़े हे। छत्तीसगढिय़ा मन ला संवागे अपन आतमा ल होम देहे ल परही- वोई हर छेवर छार ओखद ए। अभी त दाई के अंचरा आंसू मं भींजे हावय। ये आंसू भेलाई- दुर्ग के वित प्यारे लाल देसमुख के पोथी- गुरतुर गीत- मं हावय चारो कती तिहार हे- फेर अंतस म अंधियार हे-
चोला कोंहड़ा नार आस सुखावत हे,
आंखी ले चुचुवागे आंसू के धार।
गाड़ा खन असन कउद जिनगी के
कनिहा मां परगे अंकाल के।
घमघम ले घपटे हे, दुकाल साल-साल के।
छरछिर छरछिर परथे झिपार।
परलोखीया मन के घर मं बियारी होगे।
आज हमर देस मं अंधियारी होगे।
पीतर पाख के सुरता एक्के पांवत मं सुग्घर हावय-
आगे पितर-पाख संगवारी- कहूं रांधे बरा रे भइया,
कहूं रांधत हे सुहारी, बरा सुहारी के रंधई मां।
जुच्छा परगे रे ओनहारी,
त परेम पिरीत के गीत कमती गुरतुर नोहे-
मोर अंतस तरिया हे, सुरता तोर पानी हे।
मोर ऊजरे जिनगी के, तोर मया कहानी ए।
आंखी मं अंजागे, रूप के तोर काजर।
डॉ. पालेश्वर शर्मा, बिलासपुर
दैनिक भास्कर के संगवारी ले साभार
सुघ्घर..हमर भाखा ह जग भर के कोंटा कोंटा म पहुंचय.अही कामना हे..
काका पालेश्वर प्रसाद शर्मा जी , हमर सियान ए अऊ छ्त्तीसगढी बर समर्पित मनखे ए । जिनगी भर छत्तीसगढी के सेवा करिन हावैं अऊ करतेच हें । हमन ल इँकर पाछू-पाछू रेंगे बर लागही , तभे हम अपन छत्तीसगढी महतारी के ऋण ले उऋण होबो ।
दादाजी कतेक सुघ्घर बात लिखे हव आप छत्तीसगढ़ी कविता ह वो पंड़की साही हावय, जेकर डेना उडिय़ाय के पहिली लहू मं तर-बतर हे, चिरई-चुरगुन ल देख के वोकर मन अगास मं उडिय़ाय बर करथे, अपन खेत-खार मं दाना चरे बर जीउ हदरथे फेर परदेसी मन के मारे असक परे हे। ए लूट-खसोट कब सिराही? बिहान कब आही? अपन अधिकार बर हम छत्तीसगढिया ला जागे बर परही तभे बिहान होही